दोहा सप्तक-35 / रंजना वर्मा

सभी कीजिये कर्म सद, हो सबका उद्धार।
जीवन में जो भी मिला, सबका है अधिकार।।

पार साँवरा ही करे, जग का पालनहार।
त्याग अगर उसको दिया, जीवन है बेकार।।

हो संयोग भले नहीं, कभी मुक्ति का किन्तु।
माया में ही भ्रम रहे, जीव और सब जन्तु।।

सद साहित्य सृजन सदा, करता जग कल्याण।
अमर सदा होता यही, रहें या न फिर प्राण।।

ज्ञान सदा अनमोल है, लीजे बढ़ कर धाय।
यदि ज्ञानी वक्ता मिले, मिलिये कण्ठ लगाय।।

आस नहीं पूरी हुई, मनमोहन के द्वार।
फिर भी छूट नहीं सका, मन से उसका प्यार।।

पर्व सुखद संक्रांति का, नभ में उड़े पतंग।
जैसे तन जग में रहे, मन मोहन के संग।।

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