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दोहा सप्तक-55 / रंजना वर्मा

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खड़ी राधिका है रही, मोहन तुम्हें पुकार।
नैन तृषित दोनो थके, तेरी बाट निहार।।

भूल गये हमको हरी, लख कुब्जा का गात।
भुला दिया है किंतु क्या, मिली हृदय सौगात।।

हृदय धाम वृंदा विपिन, दृग कालिंदी तीर।
यहीं बसेरा कीजिये, बलदाऊ के वीर।।

यादें हैं कचनार सी, खिल खिल उठे समीर।
बजी प्रेम की बाँसुरी, मन यमुना के तीर।।

हुआ रंग बेरंग सब, जब से हुआ वियोग।
क्या जाने कब संग हो, जाने कब संयोग।।

ये बढ़ती दुश्वारियाँ, करती हैं बेचैन।
दर दर डोले फिर रहे, प्रेम पियासे नैन।।

मन दर्पण पर लिख गया, ऐसा रूप आ अनंग।
होली तो हो ली मगर, कभी न छूटा रंग।।