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दोहा सप्तक-82 / रंजना वर्मा

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नीले अम्बर के तले, उड़ती स्वप्न पतंग।
बैरन हवा उड़ा रही, ख्वाबों के सब रंग।।

यादों से भर गागरी, लिये फिरे धर शीश।
पल पल भारी हो रही, कृपा करें जगदीश।।

खिड़की पर आकर कहे, रोज़ सुनहरी भोर।
रजनी गयी समेट ले, अँधियारा घनघोर।।

मिला न खाना पेट भर, तरसाती जल बूँद।
इसीलिये क्या गाँव तज, आये आँखें मूँद।।

नहीं कभी जो चाहते, करना कुछ उद्योग।
आरक्षण की आड़ में, स्वार्थ साधते लोग।।

किरण किरण में उग्रता, बीत गया मधुमास।
पावस के दिन दूर हैं, रही अधूरी प्यास।।