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दोहा सप्तक-84 / रंजना वर्मा
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रहे अनवरत गूँजता, अनहद मधु रस बोल।
सुन तू आँखें मूँद कर, मन की खिड़की खोल।।
निश्छल मन ही सुन सके, संसृति का संगीत।
जिनके मन में हो कपट, वो क्या जाने प्रीत।।
जाति धर्म की आग में, मत जल शलभ समान।
आत्म - तत्व है एक ही, इस को ले पहचान।।
मनमोहन घनश्याम मत, बीच राह में छोड़।
जकड़ें बन्धन मोह के, अब तो आ कर तोड़।।
रिक्त पड़ी गंगाजली, व्याकुल है परिवेश।
हुआ प्रदूषण युक्त अब, नदियों वाला देश।।
ऐसा अपना प्यार प्रिय, जैसे नदिया रेत।
चुम्बित कर जाती लहर, मोती सीप समेत।।
सत्य पंथ अति ही कठिन, पग पग बिखरे शूल।
सत्साहस हो साथ यदि, बने राह अनुकूल।।