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दोहा सप्तक-88 / रंजना वर्मा
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दिनकर टपका सिंधु में, हुई सुरमई शाम।
लगा झरोखे झाँकने, शशि बालक अभिराम।।
रजनीगन्धा फूलती, फूल रहा कचनार।
मदन झकोरे दे रहा, मन मे जागा प्यार।।
जादू की जाली बुने, चतुर चन्द्रिका नार।
पत्तों से छन छन गिरे, यथा दूध की धार।।
भोर हुई पूरब दिशा, खिला आग का फूल।
परियाँ भागीं नींद की, समय हुआ प्रतिकूल।।
टूटी माला कण्ठ की, रजनी हुई उदास।
किरणें लायीं बीन कर, मोती रवि के पास।।
राधा के कोमल चरण, गिरिधर रहे दबाय।
अधर दबा के राधिका, मन्द मन्द मुसकाय।।
निः शक्तों को जगत में, सता रहे जो लोग।
क्षमा उन्हें मत कीजिये, सदा दण्ड के जोग।।