दोहा / भाग 10 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम
मनभावन आवन सुनौ, सुख सरसावन बोल।
पुलकत तनु हुलसत हियौ, बिहँसत ललित कपोल।।91।।
स्रवन सुनत पिय आगमन, हरषि हरषि सुखदानि।
भुज फरकत हलसत हियौ, दरसत मुख मुसक्यानि।।92।।
रस ही मैं रस पाइयतु, यह सुरीत जगजोइ।
वा मुख कौ बतियान सौं, अनरस मैं रस होइ।।93।।
बदन मौरि हँसि हेरि इत, नैन नैन सौं जोर।
गोरी थौरे बैस की, लै जु गई चित चोर।।94।।
रूप सरस पानिप भर्यो, पावत नेकु न थाह।
घूम घूम मन घिरतु है, झूम झूमकन माह।।95।।
बंसी धुनि स्रवनन सुनत, तन मन अति अकुलाइ।
दौरी जावक दै दृगनि, अंजन पगनि लगाइ।।96।।
मोर मुकुट कटि पीत पट, मुरली अधर बिराज।
पाइ दरस पायौ अली, नैनन को फल आज।।97।।
मन बच कर्म सुनाइ कर, रघुपति पद अनुराग।
सो जानत सिय राम हैं, धन्य भरथ कर भाग।।98।।
जो कबिता मैं आदरत, साहित रीति बिचार।
सो निहार लघु करिकह्यो, निजमति के अनुसार।।99।।
रस धुनि गुनि अरु लच्छना, बिंग्य शब्द अभिराम।
सप्त सही यामैं सही, धर्यो सतसई नाम।।100।।