दोहा / भाग 3 / रामसहायदास ‘राम’
धनि धनि है धन के चरन, सिंजिंत मनि मंजीर।
कल हँसन के चेटुवन, मन ललचावन बीर।।21।।
बानि तजैं नहिं बावरे, कानि ििक हानि लजैन।
सौहैं दरसत साँवरे, होत हंसौहैं नैन।।22।।
आज अचानक गैल मैं, लखत गयौ हरि धीर।
काढ़े कढ़त न गड़ि रहे, अँखियनि मैं बलबीर।।23।।
जातरूप परिजंक कीं, पाटी रहि लपटाइ।
मीच बीच ही चहि चकी, तनु न पिछानी जाइ।।24।।
जौ वाके सिर पै परै, छाहँ सुमन की आय।
तौ बलि ताके सार सों, लंक बंक ह्वै जाय।।25।।
हौं न दुनी मैं यह सुनी, रीझत हो गुन पाय।
मो विगुनी हू पै कृपा, करत रहो यदुराय।।26।।
ठकुराइन पाइन चितै, नाइन चित चकवाइ।
फिरि फिरि जावक देति है, फिरि फिरि जाइ समाइ।।27।।
सेस छबीहि न कहि सकै, अगम कबीहि सुधीर।
स्याम सबीहि बिलोकि कै, बाम भई तसवीर।।28।।
आप भलो तो जग भलो, यह मसलो जुअ गोइ।
जौ हरि-हित करि चित-गहो, कहो कहा दुख होइ।।29।।
अहे कहो कच सुमुखि के, बिधि बिरचे रुचि जोरि।
छूट बाँधत है बंधे, लेत ललन मन छोरि।।30।।