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दोहा / भाग 4 / रत्नावली देवी

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बारे पन सों मातु पितु, जैसा डारत बानि।
सो न छुटाये पुनि छुटत, रतन भयेहुँ सयानि।।31।।

नाच बिषय-रस गीत गँधि, भूषन भ्रमन बिचारु।
अंग राग आलस रतन, कन्यहि हितन सिंगारू।।32।।

भूषत रतन अनेक जग, पै न सील सम कोइ।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषन होइ।।3।।

सत्य सरस बानी रतन, सील लाज जे तीन।
भूषन साजति जो सती, सोभा तासु अधीन।।34।।

सुबरन-मय रतनावली, मनि मुकता हारादि।
एक लाज बिनु नारि कह, सब भूषन जग बादि।।35।।

ऊँचे कुल जनमें रतन, रूपवती पुनि होय।
धरम दया गुन सील बिनु, ताहि सराह न कोय।।36।।

बनिक फेरुआ भिच्छुकन, जनि कबहूँ पतिआइ।
रतनावलि जेई रुप धरि, ठग जन ठगत भ्रमाइ।।37।।

अनजाने जन को रतन, कबहुँ न करि बिसवास।
बस्तु न ताकी खाइ कछु, देइ न गेह निवास।।38।।

अनृत बचन मायारचन, रतनावली बिसारि।
माया अनिरत कारने, सती तजीं त्रिपुरारि।।39।।

अगिनि तूल चकमक दिया, निसि महँ धरहु सम्हारि।
रतनावलि जनु का समय, काज परे लेउ बारि।।40।।