दोहा / भाग 4 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम
ब्रज बीथिनि नोखो रचत, नित ही नित यह ख्याल।
दोऊ चाहत फिरत है, गोरस गोरस लाल।।31।।
अनत दृगनि फेरत बहुत, टेरत हिए हिरात।
जान परत नहिं कौन सी, लला कला करि जात।।32।।
मिलत अगाऊ बिन कहे, यहै दोष इन माहिं।
उर उरझावत हठ नयन, सुरझावत फिर नाहिं।।33।।
जुरत नैन पर जरत हिय, अरी कौन यह रीति।
यह न कहूँ देखी नई, नेह नगर की रीति।।34।।
हित अनहित समुझत नहीं, इत उत करत अचेत।
रंग रचाइ लचाइ चित, फिर फँसाइ दृग देत।।35।।
इत चितयो नागर नयौ, उत चितई हँसि ईठि।
लगी अचानक मूठ सी, दुहुनि दुहुनि की दीठि।।36।।
नेह फौज दुहुँ दिसि बढ़ी, अपनी अपनी जोट।
दग हरील कटि कटि लरत, करत परसपर चोट।।37।।
चपल चलाकन सौं चलत, गनत न लाज लगाम।
रोके नहिं क्यों हू रुकत, दृग-तुरंग गति बाम।।38।।
तिय तड़ाग मंजन करत, मकर सऊ मनमान।
सी सी यह जल सीत की, मीत सुधा सी जान।।39।।
बूड़ि कहूँ उछलत कहूँ, यौं सखि अति छवि देत।
अलक नाग खैंचत ससी, मनौ सुधा के हेत।।40।।