भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 6 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये तब मौन अधर खुलें, वा छिन अरे ‘नवीन’।
ता छिन पिय मुख परस तैं, हों तुव शब्द अदीन।।51।।


राग विराग

हंसा उड़े अकास में, पै नहिं छूटयो द्वन्द।
मन अरुझान्यौ ही रह्यौ, मान सरोवर कन्द।।52।।

हम विराग आकास में, बहुत उड़े दिन रैन।
पै मन पिय-पग-राग में, लिपटि रह्यौ बेचैन।।53।।

हम सेन्द्रिय बनिबे चले, निपट निरिन्द्रिय रूप।
इत, मन बोल्यो, बावरे, पिय को रूप अनूप।।54।।

व्यर्थ भये, असफल भये, योग साधना यत्न।
कौन समेटे धूरि जब, मन में पिय सों रत्न।।55।।

कहँ धूनी कीं राख यह? कहँ पिय-चरण-पराग?।
कहाँ बापुरी विरति यह? कहाँ स्नेह, रस, राग?।।56।।

प्रिय, हम तैं या देह सों, सधै गौं न बैराग।
फीके-फीके सो लगत, सबै जोग-जप-जाग।।57।।

सदा राउरी अर्चना, सन्तत राउर ध्यान।
राउर ढ़िग रहिबौ ललकि, यही हमारी बान।।58।।

कबहुँ बेणी गूँथिये, कबहुँ चापिये पायँ।
कबहुँ अधर रस चाखिये, तब नवीन हरषायँ।।59।।

खीझि रह्यो तुम एक दिन, कि हम बड़े बेकाम।
ठीक हमारो काम है, बिकि जेबो बेदाम।।60।।