दोहा / भाग 6 / रामचरित उपाध्याय
धन उनही कौ जानिये, जग कीरत जिन कीन।
न तु समान दोऊ अहैं, धनाधीस, धनहीन।।51।।
गुन-दुरगुन छिपि सकहिं नहिं, करिये कोटि उपाय।
तैल-बिन्दु जलमाहि ज्यौं, तुरत जात उतराय।।52।।
केवल गुनही से न जस, चहिये आग-सहाय।
फूलत-फलत न देखिये, महँगो पान बिकाय।।53।।
भल-अनभल दोउन किये, 5जस बड़ेन के हाथ।
बसन बढ़ाइ चुराइ ज्यौं, सुजसी जग जदुनाथ।।54।।
मानी दीन न ह्वै फिरै, बरुक प्रान दै खोय।
बिना बुझे ही कबहुँ क्यौं, पावक सीतल होय।।55।।
दुःख-सुख, धन जीवन-मरन, पैये बार करोर।
बीत गयौ जो फिर कबौं, समय न मिलत बहोर।।56।।
पण्डित मानी, मूढ़ जह, चुप साधे तहँ चैन।
दादुरगन के बचन सुनि, कढ़त न कोकिल बैन।।57।।
कैसी हूँ आपति परै, मीतहिं तजिय न तात।
ग्रहण-समय मुख राहु के, चन्द संग मृग जात।।58।।
बिनु फूटे निज जाति के, हानि लह्यो कब कोय।
लोहा काट्यो जात तब, लोह-छिनी जब होय।।59।।
तौलौं ही डर विपति सों, जबलों बिपति सुदूर।
नद में डूबै नाव तौ, पैरे परियत पूर।।60।।