भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 6 / रामचरित उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धन उनही कौ जानिये, जग कीरत जिन कीन।
न तु समान दोऊ अहैं, धनाधीस, धनहीन।।51।।

गुन-दुरगुन छिपि सकहिं नहिं, करिये कोटि उपाय।
तैल-बिन्दु जलमाहि ज्यौं, तुरत जात उतराय।।52।।

केवल गुनही से न जस, चहिये आग-सहाय।
फूलत-फलत न देखिये, महँगो पान बिकाय।।53।।

भल-अनभल दोउन किये, 5जस बड़ेन के हाथ।
बसन बढ़ाइ चुराइ ज्यौं, सुजसी जग जदुनाथ।।54।।

मानी दीन न ह्वै फिरै, बरुक प्रान दै खोय।
बिना बुझे ही कबहुँ क्यौं, पावक सीतल होय।।55।।

दुःख-सुख, धन जीवन-मरन, पैये बार करोर।
बीत गयौ जो फिर कबौं, समय न मिलत बहोर।।56।।

पण्डित मानी, मूढ़ जह, चुप साधे तहँ चैन।
दादुरगन के बचन सुनि, कढ़त न कोकिल बैन।।57।।

कैसी हूँ आपति परै, मीतहिं तजिय न तात।
ग्रहण-समय मुख राहु के, चन्द संग मृग जात।।58।।

बिनु फूटे निज जाति के, हानि लह्यो कब कोय।
लोहा काट्यो जात तब, लोह-छिनी जब होय।।59।।

तौलौं ही डर विपति सों, जबलों बिपति सुदूर।
नद में डूबै नाव तौ, पैरे परियत पूर।।60।।