दोहा / भाग 7 / चन्द्रभान सिंह ‘रज’
विवस प्रेम बन्धन बँधे, प्रकृति ब्रह्म जग सार।
प्रकटे स्यामा स्याम ‘रज’, करन सुप्रेम प्रसार।।61।।
प्रेम समाज बनाय ‘रज’, सुभग सलोने स्याम।
नृत्यत युवतिन संग नित, श्री बरसाने धाम।।62।।
विषय निरत मन हर्ष ‘रज’, निज बस मन अनुराग।
आनन्द मन बस इन्द्रियाँ, परै सप्रेम-पराग।।63।।
ईस प्रेम द्वै एक ‘रज’, यही वेद को लेख।
जिमि बाढै नव अंक तइ, रूप एक ही देख।।64।।
सबै प्रेम के लालची, प्रम बसी जग जान।
हरिहर लौं बस प्रेम ‘रज’, और कहौं का आन।।65।।
प्रेम प्रेम कहियो सुलभ, करियों कठिन महान।
करिबौ हू ‘रज’ सुगम पै, दुर्लभ निभबौ जान।।66।।
अधर मधुर रस अति सरस, सबही जानत नाहिं।
जिन उर छाक्यो प्रेम ‘रज’, ते जानत मन माहिं।।67।।
सत्य प्रेम ‘रज’ देखि लो, बनत न लागै देरि।
सावित्री एक प्रेमबस, यम सों पति लिय फेरि।।68।।
प्रेम भक्ति अतिही सुलभ, करि जानै ‘रज’ कोय।
पै यामें एतो कठिन, बिनु हरि कृपा न होय।।69।।
‘रज’ दृढ़ व्रत इकत्याग तें, करै प्रेेम पहिचान।
बिनु इच्छा वहि ध्यान तें, बस होवें भगवान।।70।।