दोहा / भाग 8 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
हम तो ढूँढ़त हैं पियहिं, गहरे पानी पैठि।
वै गहराई छाँड़ि कै, रहे किनारे बैठि।।71।।
अपने पिय कौ ढूँढ़िबे, हम तौ उड़त अकास।
वे भूतल की गलिन में, करत रहत उपहास।।72।।
हम उत, वे इत चलत हैं, हम इत, वे उत जात।
योही इत-उत में सतत, बीतत है दिन-रात।।73।।
जे पग हम राखत हिये, जे पग लखे न काहु।
उन पग गज-गति चलत तुम, आहु सजन गृह आहु।।74।।
कुहकी कोयल मद भरी, इन आमन की डालि।
बगिया में ढ़रि हृदय के, कष्टक लेहु निकालि।।75।।
श्री शिवनारायण मिश्र के निधन पर
नट आयो रँगभूमि में, धरि कैं रूप अनेक।
नाच-नाचि पुनि चलि बस्यो, इक दिन एका एक।।76।।
नट नाच्यो सब कहि उठे, यह नट बड़ो प्रवीन।
नट थाक्यो तादिन भये, दर्शक तेरह-तीन।।77।।
नट आयौ रोयौ हँस्यौ, सबहिं रुवाय हँसाय।
नट पट बदल्यौ, लखि रहे, सब दर्शक निरुपाय।।78।।
नट यह आयौ यह गयौ, यह छिन भर कौ मोह।
कासों नातौ मानिये, कासों छोह विछोह।।79।।
एक यवनिका पतन तैं, सूनो होत न मंच।
रंगभूमि जग की विशद, ऊनी रहत न रंच।।80।।