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दोहा / भाग 8 / रत्नावली देवी

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रतनावलि धरमहि रखत, ताहि रखावत धर्म।
धरमहि पातत सो पतत, जेहि धरम को मर्म।।71।।

रतन करहु उपकार पर, चहहु न प्रति उपकार।
लहहिं न बदलो साधु जन, बदलो लघु व्योहार।।72।।

परहित जीवन जासु जग, रतन सफल हैं सोइ।
निजहित कूकर काक कपि, जीवहिं का फल होइ।।73।।

अस करनी कर तू रतन, सुजन सराहैं तोइ।
तुव जीवन लख मुद लहैं, मरे करें सुधि रोइ।।74।।

सोइ सनेही जो रतन, करहि विपति में नेह।
सुख सम्पति लखि जन बहुरि, बनें नेह के गेह।।75।।

पियति परें जे जन रतन, निबहैं प्रीति पुरानि।
हितू मीत सतिभाय तें, पै न बहुरि जिय जानि।।76।।

रतनावलि मुखबचन हूँ, इक सुख दुःख को मूल।
सुख सरसावत बचनं मधु, कटु उपजावत सूल।।77।।

रतनावलि कांटो लग्यो, वैदनि दयो निकारि।
बचन लग्यो निकस्यो न कहुँ, उन डारो हिय फारि।।78।।

भलें होइ दुरजन गुनी, भली न तासों प्रीति।
विषधर मनिधर हू रतन, डसत करत जिमि भीति।।79।।

भल एक्लो रहिबो रतन, भलो न खल सहबास।
जिमि तरु दीमक संग लहै, आपन रूप बिनास।।80।।