भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहे / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
आजीवन थे जो पिता, कल कल बहता नीर।
कैसे मानूँ आज वो, हैं केवल तस्वीर॥
रहे सुवासित घर सदा, आँगन बरसे नूर।
माँ का पावन रूप है, जलता हुआ कपूर॥
हर लो सारे पुण्य पर, यह वर दो भगवान।
बिटिया के मुख पे रहे, जीवन भर मुस्कान॥
नथ, बिंदी, बिछुवा नहीं, बनूँ न कंगन हाथ।
बस चंदन बन अंत में, जलूँ तुम्हारे साथ॥
दीप कुटी का सोचता, लौ सब एक समान।
राजमहल के दीप को, क्यूँ इतना अभिमान॥
जाति पाँति के फेर में, वंश न करिये तंग।
नया रंग पैदा करें, जुदा जुदा दो रंग॥