दोहे / अवनीश त्रिपाठी
सिरहाने की चुप्पियाँ, पैताने की चीख।
मौन देह की अस्मिता, मृत्यु-पाश की भीख।।
दीवारें, ईंटें सभी, रोईं हर-पल साथ।
दरवाजे,छत,खिड़कियां, छोड़ चले अब हाथ।।
खेत-मेंड़ लिखने लगे, फसलों का सन्दर्भ।
देख इसे चुपचाप है, क्यों धरती का गर्भ??
मुड़ा-तुड़ा कागज हुआ, सूरज का विश्वास।
बादल भी लिखने लगे , बुझी अनबुझी प्यास।।
टूट टूट गिरने लगे, नक्षत्रों के दाँत।
उम्मीदें रूठी हुईं, ऐंठ रही है आँत।।
भूल गया मानव यहाँ,रिश्तों का भूगोल।
भीतर बैठा भेड़िया, ऊपर मृग की खोल।।
जटिल हुई जीवन्तता , टूट गए सम्वेद।
उग आये फिर देह पर,कुछ मटमैले स्वेद।।
बाहर सम्मोहन दिखा,भीतर विषधर सर्प।
अनपढ़ चिट्ठी ने पढ़े, अक्षर अक्षर दर्प।।
कथरी,कमरी,चीथड़े,फटी पुरानी शाल।
ओढ़े दुबकी है व्यथा,कोने में बेहाल।।
स्वाहा होते कुण्ड में, आशाओं के मंत्र।
धुआँ हुए परिवेश से, परिचय का गणतंत्र।।
भूख-प्यास से त्रस्त है, लोकतंत्र का पेट।
हवा चिताओं से रही,सुलगाती सिगरेट।।
विक्रम भी चुपचाप हैं,ओढ़े मोटी खाल।
प्रजातन्त्र की रीढ़ पर,चढ़ बैठा बेताल।।
दशा-दिशा दोनों हुए, शोषित,दलित, निरीह।
जातिवाद की डायनें,नहीं डाँकतीं डीह।।
संविधान किससे कहे,अपनी व्यथा असीम।
राजनीति ने कर दिए,कितने राम-रहीम ?
'राजा गूँगा है यहाँ,बहरी है सरकार'।
कहते-कहते इस तरह,प्रजा गिरी मझधार।।
बूढ़े बरगद की जड़ें,भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।।