दोहे / एस. मनोज
दोहा
व्यर्थ भेल सभ राग अछि, व्यर्थ भेल सभ साज।
जीवन केर संग्राममे, बेसुर सभ आवाज ।
मोनक पीर नहूँ नहूँ, तन पर करै प्रहार
स्वास्थक अछि जँ कामना, नीक करू व्यवहार।
नारी गुण केर खान अछि, नर अछि सुधा समान।
नर नारी संयोग सँ, सुरभित सकल जहान।
शस्य श्यामला वसुंधरा भ' रहली नित हीन।
विष घोलैत छी विश्वमे भ' रहलहुँ हम दीन।
लिखू सदा जन पीड़ क', पीड़ामे अछि देश ।
घोर अमावश राति अछि, मेटबू सभक क्लेश।
भौतिकवादी पंथ क' ई कैसन उपहार ।
संवेदन सभ मरि रहल जीवन अछि लाचार ।
जिनका माथा पर रहल, भरि परिवारक भार।
वृद्धाश्रम मे आइ ओ, छथि बेबस लाचार ।
उपवन मे गूँजै लगल, रितु मधुमासक साज।
दिग दिगन्त पसरै लगल, कोइलि क' आवाज ।
क्षण क्षण जंगल कटि रहल, भोगवादकें नाम ।
तप्त होइत अहि भूमिकें, सर्वनाश अंजाम।
पुष्प पुष्प पर गूँजैत अछि, भ्रमर भ्रमर केर गान।
रस चूसै ओ पुष्प सँ, सुधा करै अछि दान।