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दो कौड़ी का मोल नहीं है सौ का टैग लगा बैठे हो / ब्रह्मदेव शर्मा

दो कौड़ी का मोल नहीं है सौ का टैग लगा बैठे हो।
कौन खरीदेगा दर्पण को अंधा शहर बसा बैठे हो॥

बेशकीमती मिट्टी की भी तुमने तो बोली लगवा दी।
उल्टे सीधे दंद फंद कर कैसा स्वांग रचा बैठे हो॥

झूठी नैतिकता के कारण कैकेयी के वर हावी हैं।
सच्चाई के राम लखन को तुम वनवास सुना बैठे हो॥

वह जिसने संघर्ष किया है दिनमानों की भाँति जले हैं।
उनको जुगनू से भी कमतर रोशन हुआ बता बैठे हो॥

सांसों का है कर्ज ज़िन्दगी इससे ज़्यादा और नहीं कुछ।
कैसे चुके ब्याज के ऊपर तगड़ा ब्याज लगा बैठे हो॥

हाथों से रोटी छीनी है दर-दर भूख बिलखती फिर भी।
तुम साज़िश पर साज़िश करके खाली थाल बजा बैठे हो॥

राख हुए शोलों को क्योंकर फूँक रहे हो तुम दिन दिनभर।
सीले सीले इस मौसम में घर-घर आग लगा बैठे हो॥