भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो चेहरे / स्वदेश भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे जुड़वाँ प्राण
उन्हें कैसे पालूँ !

एक है भीतर जैसा
बाहर नहीं दिखता वैसा
दूसरा है बाहर जैसा
भीतर नहीं वैसा
विचित्र है उनकी समरसता
ऐसे में उन्हें कैसे सम्भालूँ

मेरे जुड़वाँ प्राण
उन्हें कैसे पालूँ ।

पहले को चाहिए सुनहरी मँज़िलें
और दूसरे को चाहिए अस्तित्व समुद्र-अन्तर्मन
जिसके किनारे बैठे
देखा करें उद्वेलित लहरों का विसर्जन !

पहले को चाहिए प्रेम का सँवरण
और दूसरे को प्रेम की परिभाषा
नीली घाटियाँ, रजत रश्मियों वाले पर्वत
वसन्त में खिले फूलों की हंसी
आदिम आकाँक्षाएँ —
कि कितना आकाश
बाँहों में भर लूँ

मेरे जुड़वाँ प्राण
उन्हें कैसे पालूँ ।

पहला अपनी बात नहीं कहता
सोचता अन्दर-ही-अन्दर
बनाता बहुत सारे मनसूबों के रेत-घर ।
और दूसरा सोचता फिर उसी
सोच के अर्थ को नकारता
पहला असहाय हो जाने पर आहें नहीं भरता, न ही कराहता
एक सपने से टूटकर दूसरे से जुड़ने का क्रम सँजोता
पर दूसरा बिलखकर अपनी ही बाँहों में
माथा छुपा लेता
एक भयानक मौन-चीख़ के बीच
नई आशाएँ सर्जित करता कि प्राणों के कैन्वस पर
कितने रँग सजा लूँ

मेरे जुड़वाँ प्राण
उन्हें कैसे पालूँ ।