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दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं / शैलेन्द्र सिंह दूहन

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दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं,
संगम के बंधन की यादें मौन पिए दुख सहतीं हैं।
कैसे भूलें आपस की वे आहों में लिपटी बातें?
पल से छोटी लगती थीं जो सरदी की लम्बी रातें।
अधरों के तट को छू-छू कर मधुशाला तू बहक नहीं
टूटे सपनों के आँगन में पुरवा-पछवा बहतीं हैं।
दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं।
हाथ पकड़ कर नज़र झुका वो भीतर-भीतर सकुचाना
बिना कहे ही सब कुछ कह कर दोनों का जी भर आना।
उन मीठे अभिसारों की हर तुरपाई अब उखड़ गयी
चाहें गहरी अंधियारी बन गुमसुम-गुमसुम रहतीँ हैं।
दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं।
महक रहा था कल जो गुलशन आज़ वही अंगार हुआ
पीड़ा का आलिंगन ही अब जीने का आधार हुआ।
इक-इक कर हैं खुशियों के सब ताने-बाने चटक गये
पागल दिल की उम्मीदें भी छिन-छिन जाती ढहतीँ हैं
दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं।