भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो मुठ्ठी धूप/ज्योत्स्ना शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


57
दो मुठ्ठी धूप
छिड़की यहाँ-वहाँ
मेघ -रजाई
छिप के पूछे रवि-
बूझो तो मैं हूँ कहाँ ?
58
तुषार बिंदु
टप टप टपके
फूल पांखुरी
भोर की पलकों पे
ज्यूँ हों मोती अटके ।
59
परखना क्या
इन्हें तू प्यार कर
रिश्ते काँच हैं
नाज़ुक से होते हैं
टूटें ,दर्द ढोते हैं ।
60
हाँ ,पँखुरी से
सहेज लिये सारे
जो रिश्ते मिले
फिर जीवन मेरा
क्यों न फूल- सा खिले !
61
तुम से रिश्ते
कुछ ऐसे निभाए
बाँधा बंधन
चाहा फिर गिरह
यूँ पड़ने न पाए ।
62
रिश्ता हमारा
मैंने जोड़ा ही नहीं
जी भर जिया,
प्रीत के साथ दर्द
तुमने दिया ,लिया ।
63
जैसे भी चाहो
ओढ़ना या बिछाना
इतना सुनो
ये रिश्तों की चादर
दाग़ मत लगाना ।
64
मौला, ये रिश्ते !
कितने अजीब हैं
दूर लगते
अक्सर हमारे जो
बेहद करीब हैं ।