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दो लड़कियाँ / शैलजा सक्सेना

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दो–दो लड़कियाँ रहती हैं मेरे भीतर,
एक वो, जो पैदा हुई थी
गली के कोने वाले घर में,
जहाँ सौर के बाहर बैठे लोग
आँचल में छुपा,
बचा लेना चाहते थे उसे ज़माने की हवाओं से,
फिर उसे बचाने के डर में घटते रहे थे खुद!
वो लड़की,
उनके घटने को देख-देख बँटती रही भीतर ही
और अपने बढ़ते कद को छुपाने के लिये
होती रही दोहरी.....
फिर उस दोहरी हुई लड़की के भीतर से ही
पैदा हुई एक और लड़की
जो चाहती नहीं होना दोहरी,
चाहती नहीं छुपाना अपना कद,
चाहती नहीं बँटना अपने ही भीतर....
 
ये दोनों ही लड़कियाँ रहती हैं
मेरे भीतर...
बहसती-झगड़ती....,
हर बात पर राय है दोनों की अलग-अलग,
कभी जीतती है दोहरी हुई लड़की.....
कभी सीधी खड़ी लड़की....
और मैं,
उनकी बराबर जारी बहस से थक कर अब
इंतज़ार में हूँ,
एक की स्थायी जीत में.....।