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द्रौनाचल कौ ना यह छटकयौ कनुका जाहि / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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द्रौनाचल कौ ना यह छटक्यौ कनूका जाहि
छाइ छिगुनी पै छेम-छत्र छिति छायौ है ।
कहै रतनाकर न कूबर बधू-वर कौ
जाहि रंच राँचे पानि परस गँवायौ है ॥
यह गरु प्रेमाचल दृढ़-ब्रत-धारिनि कौ
जाकै भार भाव उनहूँ की सकुचायौ है ।
जानै कहा जानि कै अजान ह्वै सुजान कान्ह
ताहि तुम्हैं बात सौं उड़ावन पठायौ है ॥72॥