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द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ५

(३१)
यह फूलों का देश मनोरम
कितना सुन्दर है रानी!
इससे मधुर स्वर्ग? परियाँ
तुझ-सी क्या सुन्दर कल्याणी?
अरे, मरूँगा कल तो फिर क्यों
आज नहीं रसधार बहे?
फूल-फूल पर फिरे न क्यों,
कविता तितली-सी दीवानी?

(३२)
पाटल-सा मुख, सरल, श्याम दृग
जिनमें कुछ अभिमान नहीं,
सरल मधुर वाणी जिससे
मादक कवियों के गान नहीं;
रेशम के तारों से चिकने बाल,
हृदय की क्या जानूँ?
आँखें मुग्ध देखतीं, रहता
पाप-पुण्य का ध्यान नहीं।

(३३)
बार - बार द्वादशी - चन्द्र की
किरणों में तू मुस्काई,
बार - बार वनफूलों में तू
रूप लहर बन लहराई।
हिमकण से भींगे गुलाब तू
चुनती थी उस दिन वन में,
बार-बार उसकी पुलक - स्मृति
उमड़ - उमड़ दृग में छाई।

(३४)
ये नवनीत - कपोल, गुलाबों
की जिनमें लाली खोई;
ये नलिनी - से नयन, जहाँ
काजल बन लघु अलिनी सोई;
कोंपल से अधरों को रँगकर
कब वसन्त - कर धन्य हुआ?
किस विरही ने तनु की यह
धवलिमा आँसुओं में धोई?

(३५)
युग-युग से तूलिका चित्र
खींचते विफल, असहाय थकी,
उपमा रही अपूर्ण, निखिल
सुषमा चरणों पर आन झुकी।
बार-बार कुछ गाकर कुछ की
चिन्ता में कवि दीन हुआ;
सुन्दरि! कहाँ कला अबतक भी
तुझे छन्द में बाँध सकी?

(३६)
उतरी दिव्य-लोक से भू पर
तू बन देवि! सुधा - सलिला,
प्रथम किरण जिस दिन फूटी थी,
उस दिन पहला स्वप्न खिला।
फूटा कवि का कण्ठ, प्रथम
मानव के उर की खिली कली,
मधुर ज्योति जगती में जागी,
सत् - चित् को आनन्द मिला।

(३७)
जिस दिन विजन, गहन कानन में
ध्वनित मधुर मंजीर हुई,
चौंक उठे ये प्राण, शिराएँ
उर की विकल अधीर हुईं।
तूने बन्दी किया हॄदय में,
देवि, मुझे तो स्वर्ग मिला,
आलिंगन में बँधा और
ढीली जग की जंजीर हुई।

(३८)
तू मानस की मधुर कल्पना,
वाणी की झंकार सखी!
गानों का अन्तर्गायन तू
प्राणों की गुंजार सखी!
मैं अजेय सोचा करता हूँ,
क्यों पौरुष बलहीन यहाँ?
सब कुछ होकर भी आखिर हूँ
चरणों का उपहार सखी!

(३९)
खोज रही तितली-सी वन-वन
तुम्हें कल्पना दीवानी;
रँगती चित्र बैठ निर्जन में
रूपसि! कविता कल्याणी।
मैं निर्धन ऊँघती कली - से
स्वप्न बिछा निर्जन पथ पर
बाट जोहता हूँ, कुटीर में
आओ अलका की रानी!