द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ९
(६७)
रह - रह कूक रही मतवाली
कोयल कुंज-भवन में है,
श्रवण लगा सुन रही दिशाएँ,
स्थिर शशि मध्य गगन में है।
किसी महा - सुख में तन्मय
मंजरी आम्र की झुकी हुई,
अभी पूछ मत प्रिये, छिपी-सी
मृत्यु कहाँ जीवन में है।
(६८)
तू बैठी ही रही हृदय में
चिन्ताओं का भार लिये,
जीवन - पूर्व मरण - पर भेदों
के शत जटिल विचार लिये;
शीर्ण वसन तज इधर प्रकृति ने
नूतन पट परिधान किया,
आ पहुँचा लो अतिथि द्वार पर
नूपुर की झंकार किये।
(६९)
वृथा यत्न, पीछे क्या छूटा,
इस रहस्य को जान सकें;
वृथा यत्न, जिस ओर चले
हम उसे अभी पहचान सकें।
होगा कोई क्षण उसका भी,
अभी मोद से काम हमें;
जीवन में क्या स्वाद, अगर
खुलकर हम दो पल गा न सकें?
(७०)
तुम्हें मरण का सोच निरन्तर
तो पीयूष पिया किसने?
तुम असीम से चकित, इसे
सीमा में बाँध लिया किसने?
सब आये हँस, बोल, सोच,
कह, सुन मिट्टी में लीन हुए;
इस अनन्य विस्मय का सुन्दरि!
उत्तर कहो दिया किसने?
(७१)
छोड़े पोथी-पत्र, मिला जब
अनुभव में आह्लाद मुझे,
फूलों की पत्ती पर अंकित
एक दिव्य संवाद मुझे;
दहन धर्म मानव का पाया,
अतः, दुःख भयहीन हुआ;
अब तो दह्यमान जीवन में
भी मिलता कुछ स्वाद मुझे।
(७२)
एक - एक कर सभी शिखाओं
को मैं गले लगाऊँगा,
भोगूँगा यातना कठिन
दुर्वह सुख-भार उठाऊँगा;
रह न जाय अज्ञेय यहाँ कुछ,
आया तो इतना कर लूँ;
बढ़ने दो, जीवन के अति से
अधिक निकट मैं जाऊँगा।
(७३)
मधु-पूरित मंजरी आम्र की
देखो, नहीं सिहरती है;
चू न जाय रस-कोष कहीं,
इससे मन-ही-मन डरती है!
पर, किशोर कोंपलें विटप की
निज को नहीं संभाल सकीं,
पा ऋतुपति का ताप द्रवित
उर का रस अर्पित करती है।
(७४)
प्राणों में उन्माद वर्ष का,
गीतों में मधुकण भर लें;
जड़-चेतन बिंध रहे, हृदय पर
हम भी केशर के शर लें।
यह विद्रोही पर्व प्रकृति का
फिर न लौटकर आवेगा;
सखि! बसन्त को खींच हृदय में
आओ आलिंगन कर लें।