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द्वादशसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

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पादाकुलदोहा -

1.
निज-निज भाग्य सराहि उभयदल मुदमन राति विताय।
जनक सबेरहि प्रातकृत्य कैं पुरहितकैं बजबाय॥

2.
शतानन्द आदिक मिलि सब जन जनवासस्थल जाय।
कयलनि अवधनृपक अभिवादन सादर माँथ झुकाय॥
3.
प्रति अभिवादन कयल अवधपति मिथिलेशक हरषाय।
लय अनुमति वसिष्ठ मुनि सौं पुनि बजला विनय जनाय॥

4.
“ज्ञानी-जनक गुरू अपने छी मिथिलापति! दृढ़सन्ध।
देहअछैत विदेह बनल छी नृप भैयो निरधन्ध॥

5.
जन धन बल पूरित छी तैयो नहिं अभिमानक गन्ध।
भाग्यवान् छी हमहुँ भेल जैं अपने सौं सम्बन्ध॥

6.
अछि व्यवहार विवाहसमय में निजकुल-परिचय देब।
पहिने अपन कहैछी हम पुनि अपने सौं सुनि लेब॥

7.
पूर्वज-पुरुष छठम हमरा सौं अम्बरीष नृपवीर।
छला भेल विख्यात सुयश जग दुष्टदमन रणधीर॥

8.
अम्बरीषसुत नहुषनाम नृप नहुषक पुत्र ययाति।
तनिक तनय नाभाग जनिक अछि त्रिभुवन में विख्याति॥

9.
नाभागक सुत विदित भुवनयश अज नामक गुन धाम।
अजक पुत्र हम थिकहु, हमर सब कहइछ दशरथ नाम॥

10.
हमर पुत्र पुनि चारि भरत ओ रिपुहन, लछुमन राम।
सब सम्पन्न शील गुन सौं छथि वर्तमान अहिठाम॥

11.
तनिक हेतु अपने क सुता कैं सदृश शील गुन जानि।
वरण करै छी हम, अपने पुनि निजकुल कहू बखानि”॥

12.
छल अगहन सुदि सुदिन पश्चमी मित्रभ-मित्र-प्रवेश।
शशि श्रुति लसित पवित्र मित्र छन बुझि शुभ समय सुदेश॥

13.
अवधेशक सुनि वचन, विनययुत बजला श्रीमिथिलेश।
“छी अपने विख्यात भुवनयश गुनबलविजितसुरेश॥

14.
संचितपुण्यप्रताप प्रजाप्रिय पृथिवीपति अवधेश!।
वेदविदित गुनखानि हमर अछि भुवनविदित ई देश॥

15.
भेला एतय विश्वविश्रुतयश महीपाल निमिनाम।
निमिक पुत्र त्रिभुवनजनपूजित मिथि नामक गुनधाम॥

16.
भेला तनिक तनय नयपाक प्रथम जनक अहिठाम।
तनय उदावसु तनिक, तनिक सुत नन्दीवर्धन नाम॥

17.
नन्दीवर्धन नृपक तनय पुनि नृपगनमान्य सुकेतु।
जनपालनरत धर्मधुरन्धर वेदविज्ञ गुनसेतु॥

18.
नृपति सुकेतुक पुत्र महीपति देवरात बलवान।
तनिक तनय भूपाल वृहद्रथ प्रजा कुमुदवनचान॥

19.
वृहद्रथ क सुत महावीर नृप जनिक सार्थ छल नाम।
महावीरभूपक सुत भूपति सुधृति धैर्यगुनवान॥

20.
सुधृति नृपक सुत धृष्टकेतु ओ तनिक तनय हर्यश्व।
प्रजा जनक उपकारहेतु छल सदा जनिक सर्वस्व॥

21.
हर्यश्वक सुत मरु महीप ओ मरुक प्रतीन्घक भूप।
प्रतीन्घकक सुत भूप कीर्तिरथ जगयश जनिक अनूप॥

22.
कीर्तिरथक सुत देवमीढ़ ओ तनिक विबुध नृप पुत्र।
जनिक हाथ में आसमुद्र छल भूमिक शासनसूत्र

23.
विबुध महीपक पुत्र महीध्रक जनिक सुयश अवदात।
तनय महीध्रकनृपक विज्ञ अति ‘कीर्तिरात’ विख्यात॥

24.
कीर्तिरात भूपक सुपुत्र पुनि महारोम भूपाल।
महारोमसुत स्वर्णरोम नृप जग यश जनिक विशाल॥

25.
स्वर्णरोम भूपक सुत भेला ह्नस्वरोम अति-विज्ञ।
जे सुरगुरु क समान बुद्धि में मनुसमान नीतिज्ञ॥

26.
तनिक तनय हम वर्तमान छी जनक द्वितीय कहाय।
एक कुशध्वज नाम छोट छथि सोदर हमर सहाय॥

27.
कन्या हमरि जेठि सीता जे दैव देल विनु यत्न।
छोटि उर्मिला नाम आत्मजा दोसरि कन्या रत्न॥

28.
आइ सुयोग सुलग्न सुदिन बुझि हम आनन्दितचित्त।
दै छी सविधि ऊर्मिला, सीता लछुमन-रामनिमित्त॥

29.
जेठि कुशध्वजसुता माण्डवी लघु श्रुतिकीर्ति अनूप।
अछि सीता-ऊर्मिला-सदृश शुभ जनिक शील गुन रूप॥

30.
जानि शुशीला नारि गृहस्थ क घर धनधर्मक सेतु।
दैछी दुहू भतीजी कैं हम भरत-शत्रुहनहेतु॥

31.
चारू वरक वधूजनि चारू वयस-रूप-अनुकूल।
ई सम्बन्ध सुगन्ध सोन में चाननतरु में फूल॥

32.
वाक्यदान हम कयल आब पुनि सविधि विवाहक कर्म।
देखि मुहूर्त होय श्रुतिसम्मत यथा उचित कुलधर्म”॥

33.
सुनि सस्नेह मधुर दुहु भूपक वचन सहित अहलाद।
कय वसिष्ठ कौसिक अनुमोदन बजला साशीर्वाद॥

34.
जनक! अहाँ ओ अवधनाथ छी नृपगनमें अवतंस।
अति प्रशस्त अछि विदित जगत में रघुकुल ओ निमिवंश॥

35.
दशरथ सन दशरथ टा छथि, ओ अहीं अहाँक समान।
दुहु जन गुन सौं एक, एक छी मानू वचन प्रमान॥

36.
कुल बल शील धर्म धन में छी अहाँ दुहू समतूल।
ई सम्बन्ध अभूत पूर्व विधि रचल परम अनुकूल॥

37.
कर्म सफलता हेतु दुहू जन प्रथम करू गोदान।
कय आभ्युदयिक कृत्य मातृका-पूजा सहितविधान॥

38.
शुभ मण्डप सजबाय बनाबू वेदी श्रुतिपरिमान।
वरक समर्चन कय करतब थिक विधियुत कन्यादान॥

39.
जतय पुरोहित सतानन्द छथि दाता जनक समान।
सीता-रामसदृश कन्यावर ततय कहत की आन॥

40.
मुनि क वचन सुनि अवधनृपति ओ मिथिलापति सानन्द।
द्विज कैं दान देल तहिविधि जे निरखि कल्पतरु मन्द॥

41.
सोन रूप मढ़बाय सिंग खुर सहितविनय-सनमान।
लाख लाख कयलनि दूनू नृप वत्ससहित गोदान॥

42.
देश विदेश क आगत जनकैं देल वस्त्र ओ अन्न।
मण्डप वेदी भेल यथोचित अतिसुरम्य सम्पन्न॥

(सवैया)

भीतर सौं चनवा नव दै तृण सौं पुनि ऊपर मण्डप छारल
बन्दनवार अनेक प्रकार लगाय सजाय ध्वजादिक गारल।
आरि ततै अहिवातक पातिलमे दय मंगल दीपक बारल
नान्दिमुखादिक कृत्य यथोचित कै मिथिलापति गामहकारल॥

दुहु कुल परिचय नृप विहित, पूर्व कृत्य सौं व्याप्त।
अम्बचरित में भेल ई, द्वादश सर्ग समाप्त॥