द्वारसों क्यों निरास ह्वै जाऊँ / स्वामी सनातनदेव
राग काफी, ताल दीपचन्दी 28.9.1974
द्वारसों क्यों निरास ह्वै जाऊँ।
तुम-सो दाता पाय प्रानधन! काहे माँगी भीख न पाऊँ॥
चहों न भुक्ति-मुक्ति सुख-सम्पति, गुन-गौरव पै चित्त न लाऊँ।
सुमति-सुगति की कुमति न मनमें, केवल तुव रतिकों अकुलाऊँ॥1॥
जनम-जनम की साध यही उर, याहीकों निसि-दिन बिललाऊँ।
तदपि हाय! या जड़ जीवनसों कैसे रस की आस लगाऊँ॥2॥
कहाकरों कोउ पन्थ न सूझत, केवल विलखि-विलखि रह जाऊँ।
अबलौं टेर न परी का, काहे कोउ संकेत न पाऊँ॥3॥
मन की लगन न छुटत हाय! मैं कैसे या मनकों समझाऊँ।
विलपत-विलपत भये बरस बहु, कबलौं बिलपत वयस बिताऊँ॥4॥
तुमहिं त्यागि पद-प्रीति तिहारी कहो कौन सों माँगन जाऊँ।
या धन को है धनी और को, जाके द्वारे अलख जगाऊँ॥5॥
प्रीति पात्र अरु हौ उदार तुम, फिर मैं क्यों वंचित रह जाऊँ।
अपने तो हो सदा-सदासों, फिर क्यों अपनी वस्तु न पाऊँ॥6॥