द्विज ओ द्विजपत्नीक यज्ञभेद / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
वनमे सखा संग व्रजमोहन धेनु चरबइत कयल अबेर
छटपटाय भूखेँ सहचर-गण घोल मचौलक एके बेर
विनुखयने नहि रहल जाय, चाही किछु अन्न, प्राण बचि जाय
कौनहु उपाय करिअ झट पाबि सकिअ किछु अन्न-कदन्नहु हाय
कहल कृष्ण, सब धैर्य धरिअ जे कहइत छी से करिअ उपाय
वनक कोनमे द्विज-गण यज्ञ रचाओल तनिकहि याचिअ जाय
दौथ्ड़ पड़ल जत ब्राह्मण ऋत्विक हवन करथि तत माङल अन्न
कहल, एखन नहि यज्ञ पूर्ण, ता’ नहि भेटतह कतबहु छह खिन्न
फिरि कय कहलनि अन्न न देलनि अग्रिम ब्राह्मण निष्ठावंत
कतबहु कयल गोहारि, हारि हम फिरि अयलहुँ, सुनि करुणावंत
कहल, दलान अड़ान यज्ञ हित तँ पुनि आङन जैतह जूमि
माया-ममतावती ब्राह्मणीसँ मङितह जा आबहुँ घूमि
जैतहिँ भूखक नाम सुनबितहि द्रवितहृदय द्विजपत्नी-गण
विविध मधुर मेवा पकवान खोआय तृप्त कयलनि शिशु मन
यज्ञकर्म कतबहु विधानसँ करथु विप्र नहि पौलनि ज्ञान
द्विजपत्नी जे दया-स्नेहसँ पौलनि फल भक्तिक सन्धान