तो फिर अब मैं बिना प्रतिवाद किए
सारे आरोपों को सिर ऊँचा किए स्वीकारते हुए
साफ़-साफ़ हृदयविहीन पत्थर का टुकड़ा बन जाऊंगी।
मैं तुम लोगों की प्रीतिविहीनता के पाप
ख़ुद अंगीकार कर सिमट जाऊंगी
अपनी परिधि में।
कभी निर्जन रात में अकस्मात शून्य-अदालत में
न्यायाधीश, वादी, वक़ील, मुंशी
एकजुट होकर चाय की टेबिल पर गोलाकार बैठ कर
मुझे नितान्त अकेले, निःसंग, नग्न
कठघरे में खड़ा करके
ठेल कर दूसरे द्वीप पर
झुण्ड बना कर लौट गए थे चाय की महफ़िल में।
ज़िन्दगी-भर तुम लोग चाय की उसी महफ़िल में
क़ैद होकर रह गए हो
मैं पाल खोल बहती-बहती द्वीप पर जा चली जाऊंगी।
हृदय कभी था भी कि नहीं-
ग़ैरज़रूरी है यह कैफ़ियत।
मेरे सीने में जो कुछ भी था, मिला था तुम्हें।
मैं बिना किसी प्रत्याशा के, इस बार
निराकार, भलमनसाहतों से जेबों को भर कर
द्वीप पर चली जाऊंगी।
उस द्वीप पर तुम लोगों के जहाज़ कभी नहीं जाएंगे।
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी,