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धँसे ज़हनो-दिल में ये क़ाबा-शिवाले / सूरज राय 'सूरज'

धँसे ज़हनो-दिल में ये क़ाबा-शिवाले।
कहाँ तक निकालूँ ये मकड़ी के जाले॥

लबों पर मरुस्थल के पैरों के छाले।
मेरी आँख कब तक समन्दर सम्हाले॥

दिली एक रिश्ता रहा पत्थरों से
जो पूजे तो पत्थर ओ पत्थर उबाले॥

जहाँ सर पर लेके खड़ा हूँ सफ़र में
कोई मेरे तलवों से कांटे निकाले॥

यहाँ पर तो बाज़ी लगी पगड़ियों की
भला किसकी हिम्मत जो सिक्का उछाले॥

अगर उम्र भर गर्मी-ए-ज़र न होती
कमा लेते तुम भी दुआ के दुशाले॥

कभी रौशनी हमने जुगनू से मांगी
कभी हमने "सूरज" को बांटे उजाले॥