धन का प्रकाशन / महेश सन्तोषी
आप शब्दों के धनी हो या नहीं, पर,
आजकल आपका धन बड़ी अहमियत से प्रकाशित हो रहा है!
बड़े दिलकश हैं आपकी किताबों के कवर,
कला-पृष्ठों पर एक-एक अक्षर,
सोने की स्याही में डुबोया-सा लग रहा है!
साहित्य-साधना, कभी रही होगी उपासना,
अब तो छिपे-छिपे बिक रही है श्रद्धा, सरेआम सम्मान बिक रहा है!
समकालीन साहित्य या साहित्य मकें समकालीनता सुन्दर शब्द हैं,
कानों को सुनने में सुहावने लगते हैं,
क्यांेकि देशी आयोजन कम क़द और कम कीमत के हैं,
विदेशों में आयोजन ही सर्वथा समुचित और समयोचित लगते हैं,
आप चाहें तो पेनांग, त्रिनिनाद या न्यूयार्क
कहीं पर मिलकर ‘मिलनी’ आयोजित कर सकते हैं,
क्योंकि ऐसे प्रवासों में ज्यादातर पराए पैसे ही लगते हैं!
पर,
समय बड़ी जल्दी भुला देता है ऐसी सतही अनुभूतियों की थोथी अभिव्यक्तियाँ
सचमुच, इनके प्रकाशन भी उतने ही आयोजित होते हैं,
जितनी प्रायोजित होती हैं इनकी बिक्रियाँ!
यह बात और है कि बाद में
दीमकें ही जगह-जगह खाती हैं ऐसी शाब्दिक प्रस्तुतियाँ!