भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धन जन अझुराइल बानी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धन जन में अझुराइल बानीं
मनवा में बाकिर बा तहरे कहानी
ई बतिया तूं त जाने लऽ खूबे
कि मनवाँ व्याकुल बा काहे हो स्वामी
भीतर में तू भें ही विर जेल हरदम
तू भें हउअ हे हरि अंतरजामी
हमरा के हमरा से बेसी तूं जानेलऽ
तहरा से कुछुओ ना छिपल हो स्वामी।

दुनिया के सुख-दुख मेभें हरऽलऽ-थकऽलऽ
भूललऽ लऽ भ रमेला मन बे लगामी
तबहूँ तू भें जानेलऽ तहरे के हरदम
भीतर से मनवा ई चाहे हो स्वामी।
हमिता ना हमरा से छूटेला कबहूँ
ओकरे से हम पएमालऽ ए सामी
मथवा से हमिता के गठरी उतरितऽ
हम होई जइतीं निहाल ऽ ए स्वामी।

छोड़लो से हतिमा ना छूटेला हमरा से
अइसन जहरियाई मीठ़ ए स्वामी
तबहूँ तूं जानेलऽ तहरे के हरदम
भीतर से मनवा ई चाहे हो स्वामी।
जे कुछ भी दुनिया में हम्मर हमार बा
जे कुछ भी हमरा बा पाले हो स्वामी
से सब तूं कहिया-ले-ले-लेबऽ हमर से
बदला में अपना के दे देबऽ स्वामी,
सब कुछ छिनइला पर पा जाई तहरा के
हरदम ई मनवाँ में हमरा हो स्वामी।
मन हम्मर हरदम ई तहरे के चाहेला
ई बतिया तूं त जानेलऽ स्वामी।