धरती और नारी / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
ब्रह्म का वत्सल हृदय नारी है.
प्रकृति के प्राकृतिक अलंकरणों से कितनी सजी है यह धरती
कितने ही गुणों से अलंकृत है यह नारी
अपनी उन्मुक्त हंसी से कितने बसंत लाती है यह धरती
अपनी निश्छल , प्रत्युपकार हीन मुस्कानों से कितने
घर बसाती है यह नारी.
कितनी गंगा-यमुनी धाराएं बहाती है यह धरती ,
कितनी पीडाओं को
अंतस में उतार कर
आंसुओं में बहा देती है नारी.
कितना पोषण करती है यह धरती.
कितना दूध पिलाती है यह नारी.
किनी रत्न गर्भा है यह धरती
कितने राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर,
युग पुरूष गर्भा है यह नारी
कितनी ज्वालायें पीती है यह धरती,
कितनी पीडाएं पीती है यह नारी .
ऊपर से कितनी शांत और उन्मन है यह धरती .
अन्तर में कितनी ज्वालामुखी धधकती
कभी साथी चोटों से नहीं फटती है धरती,
अंतस के तरल सूर्य से लावों से फटती है धरती.
कितने ही आत्मघाती संघातों को आत्म सात कर
मर्मान्तक भूकम्पी आघातों से चटकती है नारी.
इतना बोझ पृथ्वी पर न डालना की धारण करने से मुकर जाए.
इतना मर्म न दुखाना नारी का ,
कि सारा ही अंतस तरल सूर्य सा धधक जाए.
प्रकृति का जागा हुआ दिन है धरती ,
रात बन कर युगों से जागी है नारी .
सर्वग्य की पुंजीभूत ,
विभा का मूर्तिमान प्रतिबिम्ब है धरती,
तो स्वयम प्रजापति को सहन और त्याग के मंत्रोच्चार से,
ब्रह्म को धरती पर चलाती है नारी.