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धरती का अब भी उदास है रूप / फ़्योदर त्यूत्चेव

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धरती का अब भी उदास है रूप,
हवा में बहार की फैल रही है महक,
निष्प्राण-सा हिल रहा है खेत में तना
देवदार की हिल रही हैं टहनियाँ,
प्रकृति की अभी खुली नहीं है आँख,
सहमी-सहमी-सी निद्रा में
बहार की उसे सुनाई दी है आहट
न चाहते भी उस ओर खिल उठी है मुस्कुराहट...

ओ हृदय, तू भी सो रहा था गहरी नींद
अचानक तुझे क्या कर गया बेचैन ?
तेरे सपनों को पुचकार रही है नींद
सुनहले रंगों से वह सजा रही है उन्हें !
पिघलती बर्फ़ के चमक रहे हैं ढेर
चमक रहा है नभनील, खेल रहा है रक्त...
यह आनन्द न जाने किसने दिया
बहार ने या किसी औरत के प्रेम ने ? ...


(1836)