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धरती का प्रेम / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’
Kavita Kosh से
पश्चिम के नैऋत्य कोण से
धूप झुकी क्यूं झांक रही है....?
श्याम चुनर घन ओढ़े धरती
घूँघट से उसे ताक रही है।
पूछ रही है नभ मंडल में
सिंदूरी आभा क्यूं छाई?
क्या मेरे श्रृंगार हेतु
अंजूरी भर लाली ले आई?
देख घिरे हैं काले बादल
पल में आलिंगन भर लेंगे
गरजेंगे बरसेंगे झम-झम
शीतलता मन में भर देंगे।
तुझको भी जाने की जल्दी
ठहर सखी, बिंदिया तो कर दे
आज अमावस, चाँद मिलेंगे
छिपकर, आँखों में रंग भर दे।
वैसे तो प्रिय नित्य मिले हैं
पर आँगन तारों के झुरमुट
आज घिरी है काली बदरी
हम होंगे बस यमुना के तट।
झींगुरों के होंगे झनझन
भले चकोरी चिल्लाएगी
आज सकारे चाँद मेरे
अब चंद्रधरा तू कहलाएगी।