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धरती का लिहाफ़ / संतोष कुमार चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
जलकर शान्त हो रही है चिता
बियावान हो रहा है श्मशान
लौट रहें हैं परिजन
फिर
बिछी हुई न देह है
न बिस्तर
कुछ फूल मिल गए हैं गंगा से
विष को आवृत्त किए
फैला है कटोरे-सा
शिव का नीला कण्ठ
झर रहा विलाप
धीरे-धीरे
रुदन
शोक
स्मृतियों से
एकान्त पथ पर
दुम दबाए जा रहे हैं
चबाए आहट
कुछ भी नहीं अब
न चिता
न आग
न शव
न परिजन
और न विलाप
शब्दों के सुर बदलते हैं
क्या ऐसे ही
धीरे-धीरे
जब हम बोलना सीख जाते हैं
या धरती का लिहाफ़ ही
बच जाता है
महज़