जलकर शान्त हो रही है चिता 
बियावान हो रहा है श्मशान 
लौट रहें हैं परिजन 
फिर 
बिछी हुई न देह है 
न बिस्तर
कुछ फूल मिल गए हैं गंगा से 
विष को आवृत्त किए 
फैला है कटोरे-सा 
शिव का नीला कण्ठ 
झर रहा विलाप 
धीरे-धीरे 
रुदन 
शोक 
स्मृतियों से 
एकान्त पथ पर 
दुम दबाए जा रहे हैं 
चबाए आहट
कुछ भी नहीं अब 
न चिता 
न आग 
न शव 
न परिजन 
और न विलाप
शब्दों के सुर बदलते हैं 
क्या ऐसे ही 
धीरे-धीरे 
जब हम बोलना सीख जाते हैं 
या धरती का लिहाफ़ ही 
बच जाता है 
महज़