भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती माँ कहलाती है / सुरेश यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हरी -हरी वह घास उगाती है
फसलों को लहलहाती है
फूलों में भरती रंग
पेड़ों को पाल पोस कर ऊंचा करती
पत्ते पत्ते में रहे जिन्दा हरापन
अपनी देह को खाद बनाती है
धरती इसी लिए माँ कहलाती है |

पानी से तर हैं सब
नदियाँ, पोखर, झरने और समंदर
ज्वालामुखी हजारों फिर भी
सोते धरती के अन्दर
जैसा सूरज तपता आसमान में
धरती के भीतर भी दहकता है
गोद में लेकिन सबको साथ सुलाती है
धरती इसी लिए माँ कहलाती है .

आग पानी को सिखाती साथ रहना
हर बीज सीखता इस तरह उगना
एक हाथ फसलें उगा कर
सबको खिलाती है
दुसरे हाथ सृजन का ,
सह -अस्तित्व का ,
एकता का - पाठ पढ़ाती है
धरती…इसी लिए माँ कहलाती है।