भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती माता जागो / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती माता जागो
जागो माया जागो मोह
जागो हे संजोग वियोग
तृष्णा जागो तृप्ती जागो
हे आसक्ति विरक्ती जागो
जागो भोजन जागो प्रान
मां की बूढ़ी आंखों में फिर
जागो जोति अखण्ड
धरती माता जाता

गुनियां जागो ज्ञानी जागो
जग की अकह कहानी जागो
जागो ढोल मृदंग
धरती माता जागो

जागो आम जमुनियां जागो
हाथी और ललमुनियां जागो
जलचर थलचर नभचर जागो
जागो कीट पतंग
धरती माता जागो

आंगन औ चौबारे जागो
देहरी और दुआरे जागो
सकल जगत में सरबत जागो
जागो दिसा दिगन्त
धरती माता जागो

गंगा जागो जमुना जागो
हे परबत की करुणा जागो
जागो हे हिमवन्त
धरती माता जागो

जोगी जागो भेगी जागो
जागो लोक त्रिलोकी जागो
काटो भव के फन्द
धरती माता जागो
तुलसी जागो मीरा जागो
जागो सूर कबीरा जागो
जागो अनहत छन्द
धरती माता जागो

भारत मां की आशा जागो
हम गूंगों की भाषा जागो
और हमारी भाषा में भी
सिरजो नया वसन्त
धरती माता जागो

हे सोये जड़ जंगम जागो
सब नदियों के संगम जगो
समरस जीवन धारा जागो
जागो बहो अभंग
धरती माता जागो

जागो कमल चमेली जागो
जागो कोकाबेली जागो
जागो जीवन गंध
धरती माता जागो

जल में जागो थल में जागो
और अमरफल बनकर जागो
जागो गेहूं जागो धान
जागो परवल जागो पान
पोषण बन कर तन में जागो
सागर और गगन में जागो
छाई घनी अमावस
अब तो जागो सूरज चन्द
धरती माता जागो

सबकी चन्द्रबदनियां जागो
सबकी बबादुलरिया जागो
दूधो जागो पूतो जागो
दीपक जागो बाती जागो
लो गज भर की छाती जागो
लहो सदा आनन्द
धरती माता जागो।


बैसवाड़े में दीवाली की रात को दीपक जलाते समय धरती माता को भी जगाया जाता है और उन्हें लगाने के लिये पारंपरिक तौर पर निम्नांकित पंक्तियां जोर-जोर से बोली जाती हैं - धरती माता जागो, बंम्हा जागो विष्णू जागो जागो सहस कला गोववन्द धरती माता जागो। यह रचना उसी उद्बोधन की अनुगूंज मात्र है।