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धरती रोॅ बीज (कविता) / नवीन ठाकुर 'संधि'

कठिन रौद सें मची गेलै जीवोॅ में हाहाकार भारी,
मरी गेलै मकैय, मड़ुवा घास फूस बीचन कियारी।

कुछूॅ नै चललै प्रकृति लग केकरोॅ चारा,
थकी हारी सब्भेॅ जीव बनलै बेचारा।
घर-घर करै लागलै पूजा-पाठ पूरा,
चढ़ै लागलै पाठा बकरू फूल फल आक अधूरा।
सब जीवोॅ रोॅ घमण्ड टूटी गेलै पारा-पारी,

एक दाफी जबेॅ अँगड़ाई लेलकै प्रकृति,
वै सिहरन सें नंाची-नांची झूमी गेलै धरती।
वर्शा पानी सें सब्भै बीजोॅ केॅ मिली गेलै शक्ति,
सब बीचन सें होय गेलै हरा भरा जमीन परती।
सीखी लेॅ ‘‘संधि’’ प्रकृति लेलकै सम्हारी।