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धरती से बिछड़ी तो अंबर में बदरा बन के छायी हूँ / सुरेखा कादियान ‘सृजना’

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धरती से बिछड़ी तो अंबर में बदरा बन के छायी हूँ
मैं बरखा की बूंदें बन सागर से मिलने आयी हूँ

तुम क्या जानो कैसे हासिल होता है बंजारापन
जाने कितनी मंज़िल छोड़ी तब रस्ते पर आयी हूँ

मैं सीरत हूँ, मैं चाहत हूँ, मैं ही हूँ विश्वास यहाँ
सूरत पर मरने वाले को किस दौर भला मैं भायी हूँ

इक बार लगी थी सीने से, चाहा था इक बार उसे
उसके सारे ग़म अपने दामन से लिपटा लायी हूँ

हर धोके को हँसते-हँसते लफ़्जों में जब ढाल लिया
तब जाकर मेरी जान ये ग़ज़लों की नेमत पायी हूँ..