भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरापूत जागो / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुला ले सवेरा अरे सोने वाले,
धरापूत, जागो! सर्जन आ रहा है।

बढ़ा आ रहा है प्रलय का अंधेरा,
नियति रो रही है, धरा आज सोई,
बसा ले नया युग जो सोए से जगकर,
मसीहा वही और गाँधी है कोई!

जगो तुमको युग-युग की करुणा जगाए,
नए गीत गा लो, समय जा रहा है।

महल में बहलाना है आसान पगले,
न घरबार जिनको उन्हें भी उठाले,
गुलाबों का चुम्बन तो होता रहेगा,
जरा उनकी मिट्टी का चुम्बन लगा ले!

छिपे बादलों में नहीं युग विधाता,
अँधेरा समय का बहुत छा रहा है।

जगो आदमी! दो जगत को जवानी,
समय की लहर पर तू दीये जलाके,
कि धरती की परती बहारों में झूमे,
हमें नाज़ हो अपना पतझड़ सजाके!

उठो शंख फूँको जगा दो अलख तुम,
जमाना प्रगति-पथ नहीं पा रहा है।

जमाने के इंसान सोए हुए हैं,
धधकती दिशाएँ जले जा रहे हैं,
कोई जल रहा अपनी फरियाद लेकर,
मगर छलनेवाले छले जा रहे हैं।

चले जा रहे हैं ये माटी के पुतले,
सृजन आग पर भी पनपता रहा है।

जो जन-जन में खोजेगा भगवान अपना,
वही युग पुरुष और नेता वही है!
जो देगा मनुज को लहू प्राण का भी,
है अवतार मानव! विजेता वही है।

तुम्हें आज बोना नए बीज बो ले,
नया पथ बनाले समय गा रहा है।

महानाश धरती को घेरे खड़ा है,
ओ रहबर तुम्हारा जमाना न बदला,
चिता की लपट पर विवश आदमी का,
कफ़न चीखकर तन जलाना न बदला!

पलट दो धरा की सतह यह पुरानी,
नई खाद कोई कहाँ ला रहा है।