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धर्म-यन्त्र / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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समय सचमुच बहुत विपरीत है
वे बिना कुछ किये धरे
जितना हो सके हथिया रहे हैं

खुले मंच पर खड़े ये बहुरुपिये
पलक तक नहीं झपकते
और घड़ी-घड़ी अपने रंग बदल रहे हैं।

किसी के चेहरे से पता नहीं चलता कि
किसका हाथ है और किसकी ताली
और किस बात की हो रही है जय-जयकार

अफ़वाह है कि वह रोज़ आधी रात
हर दरवाजे़ की साँकल खटखटाता है
बेहद काला-कलूटा
एक घुटमुंड कालपुरुष।

मैंने अभी-अभी देखी हैं
शवगृह में
चीर-फाड़ के लिए पड़ी
क़तारों में रखी लाशें।

आधी रात गये
गृहस्थों के घर में सेंध लगाकर
मुस्टण्डे चूहों का झुंड
कुतर जाता है
सोये हुए लोगों के बाल और नाखू़न।

अब शेर की दहाड़ भी लगती है गीदड़भभकी
और बकरियों ने सीख ली है
लकड़बग्घों-सी हँसी।

अब घोड़े जनने लगे हैं गधे
भिखमंगों की झोली से निकलता है यक्ष का धन
और नामावली के अन्दर से कटार

‘रामनाम’ की जगह मची है
अब ‘रामनाम सत्य है’ की धूम।

खींची जा रही हैं
माँ-बहनों के लिए लक्ष्मण-रेखाएँ
कि इसके बाहर निकलते ही
दबोच ले जाएगा राक्षस।

ओ नगरवासी
द्वारिका में अब आने ही वाले होंगे अर्जुन
अब डरने की कोई बात नहीं है
मा भय...मा भय...!

कौन आएगा...तीसरा पांडव!
छोड़ो भी
अब उनमें नहीं रही गांडीव उठाने की शक्ति।
क्योंकि अब गड्ड-मड्ड हो गया है सब
जंगल घर में
और घर जंगल में बदल गया है।

एक खाते-पीते गृहस्थ की छत पर
अपनी गर्दन तिरछी किए हुई है
धर्म की तलवार

याद रखो भाई मेरे
लाठी उठा लो तो वह बन जाता है झंडा
और उलट दो इसे तो बन जाता है डंडा।

जब केतु का कोई ज़ोर नहीं चलता
तो राहु पड़ा है
लील जाने को।

फुटपाथ पर बैठा ज्योतिषी
बाँच रहा है उनका भाग्यफल
जो हाथ से काम लेते डरते हैं
उनका भाग्यफल उगल रहा है
बड़ी फुर्ती से, पिंजरे से निकल आनेवाला एक परिन्दा।

वे ही भाषण झाड़ रहे हैं
जिन्हें बात तक नहीं करना आता
वही लोग सुन रहे हैं
जो न जाने कब से बहरे बने हुए हैं
और जो अन्धे हैं वे दीवारों पर लिख रहे हैं।

जिन्हंे मेहनत से है गुरेज
वही दबा रहे हैं मशीनों के बटन
जब हाथ उठाने की आती है बारी
तो हाजिरी बजानेवाले खर्रे पर
लूले भी अँगूठा टीप जाते हैं

ओ वनवास झेलती, बिखरे बालों वाली
दुखिया माँ, मैं आ रहा हूँ,
ज़हरीली हवा के खिलाफ़ अपना सीना ताने
एक-एक क़दम बड़ी सावधानी से आगे बढ़ाता।

पेड़-पौधों की कँटीली डालियाँ
कितनी ज़्यादा झुक आयी हैं-
शायद बहुत दिनों से इस राह से कोई गुजरा नहीं।

मधुर प्रेम की खोज में निकले थे जो बाउल
अभी तक नहीं लौटे
उनकी ‘बनबीवी’ की सारी पुजौती
अभी भी बिखरी है ज़मीन पर

ऐसे किसी पूजा-पाठ पर मुझे नहीं है यक़ीन
मैं बढ़ाता जा रहा हूँ
ऐसी तमाम हवा के खि़लाफ़
ज़मीन पर एक-एक क़दम
सावधानी के साथ

इसलिए कि मेरी आदमगन्ध किसी भी तरह
मेरे पीछे पड़े
मक्कार बाघ के नथुनोंतक न पहुँचे।