रेल की खिड़की से देखता हूँ
घरों की पीठ पर लिखे
धातु और गुप्त रोग के
शर्तिया इलाज के विज्ञापन
एक गाँव से चढ़ते हैं दूधवाले
चौंकता हूँ उनकी टंकी देख
जो अब प्लास्टिक में बदल गई है
कानों में देर तक गूँजती है
लोहे की टंकार
आघात की तरह यह याद
चलती रेल में खँगालने लगा
कि धातुएँ अब कहाँ कहाँ बची हैं
एक लाचार आश्चर्य कि
ज़िंदगी से बहुत गुप्त रूप से
गायब होने लगी हैं धातुएँ
उन गुम धातुओं के लिए
कोई वैद-हक़ीम दिखाई नहीं देता
रेल चल रही है