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धानरोपाई / शेखर जोशी

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आज हमारे खेतों में रोपाई थी धानों की
घर में
बड़ी सुबह से हलचल मची रही काम-काज की ।
खेतों में
हुड़के की थापों पर गीतों की वर्षा बरसी ।
मूंगे-मोती की मालाओं से सजी
कामदारिनों ने लहंगों में फेंटे मारे
आँचल से कमर कसी
नाकशीर्ष से लेकर माथे तक
रोली का टीका सजा लिया ।

आषाढ़ी बादल से बैलों के जोड़े
उतरे खेतों पर
धरती की परतें खोलीं
भीगी पूँछों से हलवाहों का अभिषेक किया ।
सिंचित खेतों में
विवरों से अन्नचोर चूहे निकले
मेढ़ों पर बैठे बच्चों ने किलकारी मारी
दौड़-भूँक कर झबरा पस्त हुआ ।

बेहन की कालीनों से उठकर
शिशु पादप सीढ़ी-दर-सीढ़ी फैले ।
विस्थापन की पीड़ा से किंचित पियराए
माटी का रस पीकर
कल ये फिर हरे-भरे झूमेंगे
मंजरित बालियाँ इठलाएँगी, नाचेंगी
सौंधी बयार मह-मह महकेगी ।

जब घिरी सांझ
विदा की बेला आई
बचुवा की बेटी ने अन्तिम जोड़ सुनाए :
धरती माँ है
देगी, पालेगी, पोसेगी उनही को,
जो इसकी सेवा में जांगर धन्य करेंगे ।
ऋतुएँ पलटेंगी
घाम-ताप, वर्षा-बूँदी, हिम-तुषार
अपनी गति से आएँगे-जाएँगे
रहना सुख से, रहो जहां भी
होगी सबसे भेंट पुन:
जीवित यदि अगले वर्ष रही ।