भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धान रोपती स्त्री / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
वह गाड़ी की ओर नहीं देखती
गाड़ी धड़धड़ाती हुई निकल जाती है उसके सामने से
गाड़ी के लोग उसकी ओर देख रहे हैं
पानी और कीचड़ में सनी
उसकी पिण्डलियाँ दीख रही हैं
उसके जाँघ गोरे हैं
गाड़ी में बैठी गोरी मेम की तरह
वह कछोटा मारे
ज़मीन में धँसी
अपना भविष्य रोप रही है
वर्तमान भागा जा रहा है उसके सामने से
वह मिट्टी में क्या ढूँढ़ रही है ?
गाड़ी रोज़ ऐसे ही भागती चली जाती है
उसके सामने से
गाड़ी में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं
वह धान रोपती स्त्री
सिर्फ़ धान रोपती है ।