धिक जीवन को / अमरेन्द्र
कल मेरे एक मित्रा ने मुझसे कहा, कान में खुल कर
क्या अमरेन्दर, इन दिवसों में खूब कमाने पर हो
धरती पर ना पाँव तुम्हारे, अब तुम तो अम्बर हो
स्वर्ण-रजत की मुद्राओं से भरे हुए हो गागर ।
घर लौटा, तो लगा जोड़ने अपनी सभी कमाई
खाते में इतना भर निकला, जिसका सूद बने ना
चम्मच भर की दाल भात में; जिससे भात सने ना
पकवानों की जगह परोसी, मिरची, नून, खटाई ।
सर के उड़े हुए बालों-सा सब कुछ उड़ा-उड़ा-सा
वत्र्तमान था हाथ पसारे, रोता हुआ भविष्य
सपने सारे इधर-उधर थे, बिखरे हुए हविष्य
गर्दन जरा उठाई, तो था सिर पर तना गड़ासा ।
पहली बार लगा यह क्षण भर, मैं कितना असमर्थ
धिक जीवन को, श्रम साधन को, निष्फल है यह व्यर्थ ।