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धीरे चलो मै हारी लक्ष्मण / बुन्देली

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

धीरे चलो मैं हारी लक्ष्मण
धीरे चलो मैं हारी।।
एक तो नारी दूजे सुकुमारी,
तीजे मजल की मारी,
संकरी गलियां कांटे कटीले,
फारत हैं तन की सारी। लक्ष्मण...
गैल चलत मोह प्यास लगत है,
दूजे पवन प्रचारी। लक्ष्मण धीरे चलो...