भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धीरे चलो मै हारी लक्ष्मण / बुन्देली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

धीरे चलो मैं हारी लक्ष्मण
धीरे चलो मैं हारी।।
एक तो नारी दूजे सुकुमारी,
तीजे मजल की मारी,
संकरी गलियां कांटे कटीले,
फारत हैं तन की सारी। लक्ष्मण...
गैल चलत मोह प्यास लगत है,
दूजे पवन प्रचारी। लक्ष्मण धीरे चलो...