भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धुँआ (16) / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह धुआं एक जहरीली गैस है
जो कर देती है, अंधा मनुष्य को
उन नेत्रों को नहीं
जिससे वह देखता है, यह झूठा संसार ।
ले लेता हैं, रोशनी उन आंखों की
जो करती हैं, उजाला उसकी आत्मा में ।

इसलिए आंखों के होते हुए भी
वह अंधों की तरह दुनिया में चल रहा है
भागा जा रहा है, अंधाधुंध
भीड़ के पीछे स्वर्ग की चाह में
जो कह रहे हैं और भाग रहे हैं
इन्ही धुऐं के बादलों के पीछे
आ गया है दरवाजा जन्नत का ।

जब जाकर खटखटाता है
आती है आवाज उसे
ओ पागल तू क्यों भागा इतनी दूर
स्वर्ग का दरवाजा इन बादलों के पीछे नहीं है
यहां तो नगर है, शैतान का ।

मैं तो तेरे अंदर हूँ
खोल कर देख उन आंखो से
जिस पर जहर चढ़ा है, धुऐं का ।

कितनी विषैली गैस है, यह धुआं
पूछ कर देखो, उसे अपनी अंधी आत्मा से ।