भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँआ (2) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
कैसे हो जाए,
चारों तरफ जमघट विधवाओं का ।
कैसे बन जाए,
हंसते-खेलते शहर, ढेर एक राख का ।
हो यह कैसे भी, पर होगा जरूर ।
क्योंकि, ये बादल बनें हैं
एक धुऐं के
जो उठते हैं, मनुष्य के दिलों से
और जिसकी चिंगारी होती हैं
मनुष्य के मस्तिष्क में ।
ताकि जला सके, हर उस आत्मा को
जो चाहे, जोड़ना अपने को मानवता से ।
मानवता कहीं सुख की श्वास न ले
इसलिए मनुष्य ने जन्म दिया है
इस धुएं को
और बनाए, ये घनघोर बादल
टकराव के ।
मानवता कहीं सुन्दर भविष्य की कल्पना न करे
इसलिए मनुष्य ने उत्पत्ति की
इस धुएं की
और बनाएं ये घनघोर बादल
अन्धविश्वास के ।
मानवता कहीं धर्म में सफल न हो जाए
इसलिए मनुष्य ने रचना की
इस धुएं की
और बनाए ये घनघोर बादल
फूट के ।