भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँआ (27) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
शहर में कहीं दूर, बहुत दूर से
धुऐं के बादल उठने लगे
और सोचने लगा
कौन-कौन बने होंगे
शिकार इस जाल के ।
इसलिए काट दो इस जाल को
न रहे निशानी किसी गांठ की
इर गांठ कहती है, कहानी एक स्वार्थ की
और मनुष्य इन्हें बुनता ही जा रहा है
बिना सोचे कौन शिकार हैं, इस जाल का
उसे क्या पता है, वह बेखबर है
अपनी ही कूटनीति की दुनिया में मगन है
और बुनता जा रहा है एक जाल
जो दे रहा है जन्म इस धुऐं को नित्य-प्रतिदिन ।